पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४५

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ऐसे हमहूँ से जो नकारनि कृपा के वारि, सी चौ घन-स्याम तौ तौ विरद-सँभारी है । भक्तनि के ताप टारिवे मैं ना निहारौ नाथ, तिनके हिये तो निज धाम ही तिहारी है ॥ ५॥ दूरि करि ताप-दाप तिमिर कलाप सबै, चारों फल माहि मंजु रस सरसाए देति । दरि दुखदंद की अमंद अति उम्मस कौं, आनँद सुधा सौँ नैन-फलक द्रवाए देति ॥ विविध विलासनि सौं पूरि सुभ आसनि काँ, पाप-पंक-जात दुरवासनि दवाए देति । उर रतनाकर के ब्रज के कलाकर की, मंद-मुसकानि-जोति जीवन जगाए देति ॥ ६॥ दुखहू परे पै ना पुकारत गुपाल तुम्हैं, कबहूँ उचारत उसास भरि राधा ना । कहै रतनाकर न प्रेम अवराधैं रंच, नेम ब्रत संजमहू साधैं करि साधा ना ॥ याही भावना मैं रहैं भभरि भुलाने कहूँ, उभरि करेजै परै करुना अगाधा ना। अकथ अनंद जो अकारन कृपा को नाथ, हाथ करिबै मैं तुम्हें ताहि परै बाधा ना ॥७॥