पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५९

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(७) श्रीद्रौपदी मष्टक चूटिहैं हलाहल के चूड़िहैं जलाहल मैं, हम ना कुनाम को कुलाहल करावेगी। कहै रतनाकर न देखि पाइवे की तुम्हैं, पीर हूँ गंभीर लिए संगहीँ सिधाबैंगी ॥ हाय दुरजोधन की जंघ पै उघारी वैठि, ऐंठि पुनि कैसैं जग आनन दिखावेंगी। बार बार द्रौपदी पुकारति उठाए हाथ, नाथ होत तुमसे अनाथ ना कहावै गी ॥१॥ सांतनु की सांति कुल क्रांति चित्र-अंगद की, गंग-सुत आनन की कांति बिनसाइगी। कहै रतनाकर करन द्रोन बीरनि की, स्रौन-सुनी धरम धुरीनता विलाइगी ।। द्रौपदी कहति अफनाइ रजपूती सबै, उतरी हमारी सारी माहि कफनाइगी। द्रुपद महीपति की पंच पतिहूँ की हाय, पंच पतिहूँ के पतिहूँ की पति जाइगी ॥२॥