पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६०

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पांडु की पतोहू भरी स्वजन सभा मैं जब, आई एक चीर सौँ तो धीर सब ख्वै चुकी । कहै रतनाकर जो रोइबौ हुतौ सो तबै, धाड़ मारि बिलखि गुहारि सब रबै चुकी । झटकत सोऊ पट बिकट दुसासन है, अब तो तिहारीहूँ कृपा की बाट ज्वै चुकी । पाँच पाँच नाथ होत नाथनि के नाथ होत, हाय हाँ अनाथ होति नाथ बस हे चुकी ॥३॥ भीषम कौँ प्रेरौं कर्नहूँ को मुख हैरौं हाय, सकल सभा की ओर दीन दृग फेरौं मैं । कहै रतनाकर त्यौँ अंधहूँ के आगें रोइ, खोइ दीठि चाहति अनीठहि निवेरौं मैं ॥ हारी जदुनाथ जदुनाथ हूँ पुकारि नाथ, हाथ दाबि कढ़त करेजहिँ दरेरौं मैं। देखी रजपूती की सकल करतृति अब, एक बार बहुरि गुपाल कहि टेरौं मैं ॥४॥ दीन द्रौपदी की परतंत्रता पुकार ज्याही, तंत्र बिन आई मन-जंत्र बिजुरीनि पै । कहै रतनाकर त्यौँ कान्ह की कृपा की कानि, आनि लसी चातुरी-बिहीन आतुरीनि पै ॥