पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६

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सीतल स्वच्छ सुगंध सलिल लै कंचन झारी, दोउनि कौँ अँचवाइ चाइ भरि चहत मुखारी। बिसद बिलहरी खोलि उसीर-रचित पनसीरी, हरनि-हरास बरास-बसित दीनी मुख बीरी ॥ ९२ ॥ सजि सनेह सौ थार आरती उमगि उतारी, मनु पतंग बनि दीप देह-दुति पै बलिहारी । चहुँ दिसि ते उमगाइ धाई आरति सब लीनी, पाइ प्रसाद प्रसन्न नाद सौं जै-धुनि कीनी ॥ ९३ ॥ मृदु उसीस दै सीस हुरे सुख सौं दोउ दंपति, मृदुता-सीस-उसीस सुखद सुख के सुख-संपति । इक लजात सकुचात गात पट-पोट दुराए, इक ललचत मुसक्यात ओठ औ अधर दवाए ॥ ९४ ॥ सहज लागी दोऊ गहि पाट झुलावन, ब्रह्मादिक के भूरि भाग को मान मिटावन । परम प्रवीन प्रभाव प्रकृति पहिचाननहारी, झाँका लगन न देत देति गति अति रुचि-कारी॥९५॥ आगहि तै गहिपाट उमहि अपनी दिसि ल्यावति, पुनि कछु बढ़िअति सरल भाव सौँ झुकि लौटावति । ज्यौँ अतिथिहिँ सादर उदार आग लै ल्यावत, बिदा करन की बेर फेर मग लौँ पहुँचावत ॥ ९६ ॥