पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४६५

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चकायौ। हृदय कमठ दृढ़ धारि धर्म-ध्रुव-मंजुल-मंदर । अति अनंत विस्वास-बासकी-पास सविस्तर ।। बहु विधि तर्क-वितर्क-सुरासुर करि सहकारी । आगम-निगम-पुरान-सिंधु मथि सुधा निकारी ।। सुभ छंद-प्रबंधनि बाँघि बँध अजर अमर तासौं भरयौ। इमि तुलसीदास ललाम यह राम-चरित-मानस करयौ ॥३॥ भाषा जगत प्रकास पूरि जड़ता-तम नास्यौ । उक्ति-जुक्ति-बहुरंग-बनज-बन बिमल बिकास्यौ । रसिक मलिंदनि रंजि रुचिर रस पान करायौ। कपटी-कूर-उलूक-बृद करि मूक जिहि निगुन-सगुन-सुरूप-भ्रम-भाप-झाप-झाई झई। श्री तुलसिदास की अति अमल कल कबिता सविता भई ॥४॥ बिमल बिसद बर रामचरित मानस अन्हवायौ। अलंकार-ध्वनि-भेद सुभूषन बसन धरायौ ॥ भूरि भाव-सुभ-सुमन बासना-विविध-रूप धरि । सगुन-रूप-रस-रुचिर-रचित मोदक अर्पित करि ॥ बहु दिव्य-उक्ति-मनि-दीप सौं उमगि उतारी आरती । इमि तुलसिदास भाषा-भवन चिर-थिर थापी भारती ॥५॥ हरिहर-चरित अनूप पूप मंजुल मन भाए । अपर प्रसंग-बिधान बिबिध पकवान पकाए ।