पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(११) वर्षाष्टक पावस के प्रथम पयोद की परत बूदै, औरै अोप उमड़ि अकास छिति छ्वै रहौँ । रंग भयौ बूढनि अनूनि अनंग भयो, अंग उठि आनंद तरंग दुख ध्वै रहौँ ॥ सूहे साजि सुघर दुकूल सुख-फूलि-फूलि, चौहरी अटा पै चढ़ी चंद-मुखी ज्वै रहीं। धूप सुखमा की रूम-झूम अलि-पुंजनि की, अंबनि की डार तें कदंबनि पै है रही ॥१॥ अमित अकार औ प्रकार के पयोद-पुंज, छह छबीले छिति छोरनि छए छए । कहै रतनाकर अनूप रूप-रंगनि के, बदलत ढंग ग देखत दए दए । बिबिध बिनोद बारि-दनि के ठानें कहूँ, पावक-प्रमोद कहूँ चपला चए चए। निज मन-मोहन के मानौ मन मोहन कौं, मदन खिलारी खेल खेलत नए नए ॥२॥ 7