पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४८१

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नचत लचाइ लंक लोचन चलाइ बंक, करत प्रकास रासि ब्रज-जुवतीनि की। आनँद-अमंद-चंद उमंग बढ़ावै मनौ, रस - रतनाकर - तरंग - अवलीनि की। काका मन मोहत न जोहत जुन्हाई माहि, छहर कन्हाई की मुकट-पँखुरीनि की। छवि को छटक पीत-पट की चटक चारु, लटक त्रिभंग की मटक भृकुटीनि की ॥८॥