पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४९०

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(१५) प्रभाताष्टक ऊषा को प्रकास लाग्यौ लौकन अकास माहि, सुमन विकास के हुलास भरिबे लगे। कहै रतनाकर त्यौँ बिटप निवासनि मैं, द्विजगन चेति कसमस करिबे लगे। मुनिजन लागे लेन चुभकी गगन गंग, गौन पौन-पथिक हिये मैं धरिबे लगे। तमचुर-बंदी धरे अरुन-सुबाने सीस, ताको राज-रोर चहुँ ओर भरिबे लगे ॥१॥ कहै रतनाकर साजे सीस बानौ तमचुर ज्यौं प्रभाकर को, प्रगट पुकारि तासु आगम जनायौ है। गुलाब चटकारी देत, दिसि बिदिसानि त्यौँ सुगंध सरसायौ है । आयौ अगवानी की समीर धीर दक्खिन का, चहकि बिहंग मंगलीक गान गायौ है । ज्यौं ज्यौँ ब्योम बढ़त प्रकास-पुंज पूरब सौं, त्यौँ त्यौँ तम-तोम जात पच्छिम परायौ है ॥२॥