पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५००

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मुझत नहीं है तुम्हें अब तो सुझाएँ रंच, पाछै पछिताएँ कहा लाहु लहि जाइँगे । जैहैं बृथा आँखें खुलि तब जब देखन कौं, जग मैं तिहारे ना दुलारे रहि जाइँगे ॥४॥ नाथ भीषम औ द्रोन कृपाचार राखि साखी सुनौ, भाषी ना हमारी यह टारी टरि जाइगी। रतनाकर के कहत उठाए हाथ, माथ पै अकीरति तिहारे धरि जाइगी ॥ है है दुरजोधन निधन सब जोधनि लै, सारी औनि स्रोन-सरिता सौँ भरि जाइगी। ए हो कुरुराज जौ न मानि है। हमारी आज, तो पै या समाज पर गाज परि जाइगी ॥५॥ मानी दुष्ट-पंचक न बात जब रंचक हूँ, बंचक ली और ही अठान बरु ठानी है। कहै रतनाकर हुमसि हरि आनन पै, आनि कछु औरै कोप-ओप उमगानी है। हेरि चक्र चहुँघाँ सरोस दृग फेरि चले, अक्र है सबै ही रहे बक्रता बिलानी है। सौहैं हाथ-पावनि उठावन की कौन कहै, दीठि ना उठाई कोऊ ढीठ भट मानी है ॥६॥