पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०१

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त्रिकुटी तनेनी जुटी भृकुटी बिराजै बक्र, तोले संख चक्र कर डोले थरकत हैं। कहै रतनाकर त्यौं रोब की तरंग भरे, रोधित-उमंग अंग-अंग फरकत हैं। कर्न दुरजोधन दुसासन को मान कहा, पान इनके तो पाँसुरी में खरकत हैं। भीषम औ द्रोनहूँ सौं बनत न डा डीठि, नोठिहूँ निहारे नैन-तारे तरकत हैं ॥७॥ पाँचजन्य गूंजत सुनान सब कान लग्यो, दसहूँ दिसानि चक्र चक्रित लखायी है। कहै रतनाकर दिवारनि में, द्वारनि में, काल सौ कराल कान्ह-रूप दरसायौ है । मंत्र षडयंत्र के स्वतंत्र है पराने दुरि, कौरव-सभा में कोऊ हाँठ ना इलायौ है । संक सौं सिमिटि चित्र-अंक से भए हैं सबै, बंक अरि-उर पै अतंक इमि छायौ है ॥८॥