पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५०५

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ज्याँही भए बिरथ रथांग गहि हाथ नाथ, निज प्रन-भंग की रही न चित चेत है। क रतनाकर त्याँ संग ही सखाहूँ कूदि, आनि अरयौ सौंहैं हाहा करत सहेत है। कलित कृपा औ तृपा द्विमग समाहे पग, पलक उट्यौई रह्यो पलक-समेत है। धरन न देत प्रागै रुझि धनंजय नौ, पाछै उभय भक्त-भाव पान न देत है ॥८॥