पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६३

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(6) श्रीसती-महिमा वैठि कै हुतासन के आसन अकास जाइ लीन्ही हठि संगति उमंगति पती की है। कहै रतनाकर निहारि सब दंग भए ऐसी रही रंगत न जंगम जती की है। जाको गुन सुनि मुनि-पतनी सिहार्तिं सदा कहत रसाति रीझि रसना रती की है। बेदनि सौँ उमड़ि पुराननि के पूरि बड़ी तीनौँ महि माहि महा महिमा सती की है। (१०) दीपक विधि-विरचित दिव्य दीप अस्ताचल जावै। दुख-दायक तम-तोम ब्यौम-बिति-छोरनि छावै॥ गुन-रासि कपास नेह भरि हृदय हुलासै । निज काया करि नास और को बास प्रकासै ॥१॥ सानंद सुबंदनीय दीपक-पद पावै । ज्यौति-रूप को रूप जानि तिहि जग सिर नावै ।। मंदिरनि माहिँ पाइ सुभ ठाम विराजै । राजनि के सुभ सदन माहिँ मंजुल छवि छाजै ॥२॥ पंडित के धाम होत आदर अधिकारी। सुजन-सभा मैं करति प्रभा ताकी उजियारी॥ यह लहि सनमान नै निज वानि न त्यागत । सबही के उपकार हेत एकहि सौ जागत ॥३॥