पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६४

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नीच दरिद्री मूढ कूद मूरख पापी कौँ। देत प्रकास समान रूप रुचि साँ सबही कौँ॥ स्वर्न रजत के पात्र माहिँ नहिं अधिक प्रकास । नहिँ माटी के घटित दिया मैं कछु घटि भासै ॥ जब रोम रोम इमि नेह भरि गुनमथ सब को हित करै । तब लहि पदवी कुल दीप की दीप दीप दीपति भरै ॥४॥ (११) भारत दुरभाग्य-प्रबल-बज्री कोप्यौ है। इहिं हिय जानि अनाथ नाथ चाहत लोप्यौ है ।। महा घोर अज्ञान-तिमिर-धन चहुँ दिसि छावत । मूसलधार अपार विपति-जल खल बरसावत ॥ अव धाइ कृपाचल धारि ध्रुव बेगहिँ अाइ उवारियै । नतु गिरिवर-असरन-सरन वाँको विरद बिसारियै ॥१॥ भारत पै अहौ आर्य संतान मान उन्नत अति धारी।। सब मिलि अब इहिँ भाँति मनाऔ दिव्य दिवारी ॥ ज्ञान-दीप की मंजु माल उर-अंतर मेलौ। उन्नति-चौसर चारु प्रान-पन सौं खुलि खेलौ ॥ मुभ मनसा बाचा कर्म के अच्छ दच्छताजुत धरौ। जुग बाँधि साधि निज चाल चलि सार काढ़ि वाहिर करौ ॥२॥