पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६७

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बैद कौँ न माने ना पुरान भेद जानै कडू ठानै ठान आपने लबेद अडबंगा की। कहै रतनाकर नसावे सुद्ध स्वारथ हूँ आड़ मैं अनोखे परमारथ-भड़ेगा की !! जैन अरु बुद्ध स्वामि-संकर किये जो सुद्ध ताहू के विरुद्ध जुक्ति जोरत लफंगा की। भक्ति तो बखान पर रंचक प्रमानै सक्ति गुरु की न गोविंद की गाय की न गंगा की ॥३॥ (१४) अन्योक्ति आपसु दै वेर बलि-पायस खवैएँ खिन निज गुन रूप की हमायस बढ़ावै ना। कहै रतनाकर त्यौँ वावरी वियोगिनि के कंचन मढ़ाऐं चंचु चाव चित ल्यावै ना ॥ निज तन धारे इंद्र-नंद मतिमंद जानि मानि दृग-हानि हियँ हाँस हुमसावै ना। हंस कौं दिखावै ना नृसंस गति-गर्व छाक ए रे काक कोकिल को काकली सुनावै ना।। (१५) शांत रस देखै देखि देखन की दीठि दई जाहि दई इहिं जग जंगम न कोऊ थिर थावै है। कहै रतनाकर नरेस रंक सूधौ बंक कोऊ कल नै एक पलक न पावै है ॥