पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७७

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भारत-प्रताप भानु उच्च उदयाचल से कुहरा कुबुद्धि का चिरस्थित हटाता है। भावी भव्य सुभग सुखद सुमनावली का गंधी गंधवाहक सुगंध लिए आता है ॥ २६ ॥ आई सहेट मैं भैंटन कौँ चलि कान्ह की चेटक सी बतिया सौं । देखी तहाँ इक सुंदरी नौल बिलोकति लोल कछू घतिया सौं॥ लौटन कौँ ज्यौँ कियौ रतनाकर सोच सकोच सनी गतिया सौं। त्यौँ उन धाइ चितै हँसि कै कसि कै लपटाइ लई छतिया सौँ ॥२७॥ १२-८-३. साँवरी राधिका मान कियौ परि पाइनि गोरे गुबिंद मनावत । नैन निचों है रहैं उनके नहिँ बैन बिनै के न ये कहि पावत । हारी सखी सिख दै रतनाकर आन न भाइ सुभाइ पै छावत । ठानि नआवत मान उन्हें इनकौँ नहिँ मान मनावन आवत ॥२८॥ १९-८-३० बेष हमारौ किए कहा बैठि बिसूरति कुंजनि मैं बनवारी । यामैं है घात कछू न कछू तुम हौ रतनाकर चेटक-चारी ॥ घात कहा गुनौ साँची सुनौ हम तौ यह बैठि मनावत प्यारी। देखन कौँ यह रूप अनूप तुम्हें अँखियाँ दई देहि हमारी॥२६॥ २९-८-३० जानि बल पारुष विहान दलि दीन भयौ आपने विगान हूँ कटाई जाति काँधी है। कहै रतनाकर यौँ मति गति साधी मची जाकी क्रांति बेग सौँ असांति महा आँधी है।