पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९१

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सिंह-पौर सज्जित सौ लज्जित करत काम नैन अभिराम स्याम जमकत आवै है। कहै रतनाकर कृपा की मुसक्यानि मढ्यौ आनन अनूप चारु चमकत आवै है। माते मद-गलित गयंद लौँ सु मंद-मंद चलि चलि ठाम ठाम ठमकत आवै है। दमकत दिब्य दिपत अनूप-रूप झाँझरौ मुकुट भूमि झमकत आवै है ॥६६॥ १-८-३१ देखत तुम्हें ना तो कहा हैं नैन देखत ये सुनत तुम्है ना तोऽव स्रवन सुने कहा। कहै रतनाकर न पावै जो तिहारी बास नासा तो प्रसूननि सौं ललकि लुनै कहा। तेरे बिनु काको रस रसना लहति यह परसन माहि त्वक अपर चुनै कहा । कोऊ धुनें ज्ञान की कहानी मनमानी बैठि अलख लखैयनि कौँ हम पै गुर्ने कहा ॥६७॥ देखें नभ-मंडल ते सहित अखंडल के मंडल अखंड सब सुरनि अनी के हैं। कहै रतनाकर न पावै पर कोऊ लखि कौतुक अनोखे आज होत जो अलीके हैं ।