पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९९

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एहो ऋतुराज कैसौ राज है तिहारौ हाय जामै बली गाजि गाज गेरत निबर पै। काम हूँ जनावै बल आनि अबलानि ही पै करत न वार पै नकार गिरिधर पै ॥८६॥ १७-५-३२ होत चल अचल अचल चल होत अहो होत जल पाहन परवान जल-खाता है कहै रतनाकर अनंग अंग धारि नयौ स्वर-सर साधत न जाकौँ जग-त्राता है । रहति न सैंधी ब्रजबाम चलै सूधी धाइ त्याग्यौ पति पतिनी स्वपूत त्याग्यौ माता है। संचि संचि मूर्छना प्रपंच पटराग पागि कान्ह मुख लागि भई बाँसुरी विधाता है ॥८७॥ १८-५-३२ फेरि मुख नैननि निबेरि कहा बैठी बीर रावरौ कटाच्छ महा तीर बृथा छीजै ना। कहै रतनाकर निहारि ये तिहारे ढंग कान्हर के और हूँ उमंग अंग भीजै ना ॥ प्रीति-रंग-भूमि-नीति-निपुन नबेलिनि को सखिनि सहेलिनि को हास सिर लीजै ना। आर करि कीजै निचवार नीठि हूँ ना दीठि रार करि बैरी कौँ अनैरी पीठि दीजै ना॥ ८८॥ २०-५-३२