पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६०३

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मोर। नव नीरद-दामिनि-दुति जुगल-किसोर । पेखि मुदित मन नाचत जीवन मोर ॥११॥ ब्रज-जीवन-जीवन सो जोवन ब्रज जीवन जीवन सो जीवन मोर ॥१२॥ पिय पयान की बतियाँ सुनि सखि भोर । आँस नहीं दृग पावत जीवन मोर ॥१३॥ जतन परोसी-चैन कौ करिबौ अति सुख देत । सुनत कहानी कान ज्यौं नैन-नीदै के हेत ॥१४॥ ऊँचौ नीचौ है रहत अगनित लहत उदोत । जात सिंधुतल सुक्ति परि मुक्ति स्वाति-जल होत ॥१५॥ संतत पिय प्यारे बसत मो हिय दर्पन माहिँ । धंसत जात त्या त्यौँ सखी ज्यों ही ज्यौं बिलगाहिँ ॥१६॥ होत सीस नीचौ निपट नीच-कुसंगति पाइ । परत बारि-बिच जाइ ज्यौं काम छाइ दरसाइ ॥१७॥ सुबरन-कनक प्रभाव से सुमन-कनक को बीस। वह महीस के सीस यह चढ़त ईस के सीस ॥१८॥ दारिद-बाय प्रभाय सौं पीड़ित जाकी देह । ताके क्लेस निसेस कौं चहत धनेस-सनेह ॥१९॥