पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९२

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सुनि मुनि अति अनखाइ चढाइ भाँह भरि भाख्यौ । "सुमनराज यह कहा तुच्छ आसय उर राख्यौ ॥ अहह जाति तव मत्सरता अजहूँ न भुलाई । हेर फेर सौ बेर जदपि मुंह की तुम खाई ॥ २२ ॥ तुमहि दीन्ह करतार बड़ोपन तौ इमि कीजै । लघु गुरु सबके हित मैं चित सहर्ष निज दीजै ॥ परहित लखि दहिवी पर-अनहित हेरि जुडैबौ । परम-छुद्र-मति-काज जिन्हैं नहिँ कबहुँ लजैबौ ॥ २३ ॥ औ हरिचंद अमंदचरित को तो गुन खाँचत । हृदय भूलि सब भाव एक आनँदरस राँचत । जदपि उपद्रव-प्रिय सहजहि नित प्रकति हमारी । तउ निस्चल-हिय हेरि चहति नहि ताहि दुखारी ॥ २४ ॥ औ चाहै हूँ कहा सिद्धि कछु संभव है ना। नारद कहा सारदहु तिहिँ मति पलटि सकै ना" ॥ सुनि सुरेस खिसियाइ दियो उत्तर कछु नाही। लाग्या करन बिचार हारि औरै मन माहीं ॥२५॥