पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९३

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"करहिँ कृपा अब हरि सो हरहिँ सुभाव तिहारौ । पर-उन्नति लखि बृथा तुम्हें जो दाहनहारो॥ पूछयौ विस्वामित्र "बिचित्र आज यह बानी । कहा भयौ सुरराज कही कत मुनिबर ज्ञानी" ॥ २७ ॥ कह्यौ सुरेस बनाइ बचन तब स्वारथ-साधक । "भया कछू ऋषिराज काज नहिँ रिस-अवराधक ॥ पै तिनको सुभाव तो विदित सकल जग माहौँ । रुष्ट होन मैं तिन्हें खोज मिस की कछु नाही ॥ २८ ॥ कछु चरचा हरिचंद अवध-नरपति की आई। ताके धर्म धैर्य की तिन अति कीन्हि बड़ाई ॥ टॉकि उठे हम रोकि न जब अति सौं मन भाई । होहि परिच्छा तौ कछु परहि जानि धरमाई ॥२९॥ ताही बस बिगरि उठे करि नैन करारे । हरिहर-निंदा-बचन कछुक हम मनहुँ उचारे" ॥ सुनि मुनि कर भ्रूभंग कयौ "जो मुनि मन मोहै । कहा भूप हरिचंद माहिँ ऐसे गुन सोहैं। ॥३०॥ वोल्यौ बिहँसि बिड़ौजा "हमहूँ तो इहि भाषत । पै मिथ्या-स्लाघी औचित्य बिबेक न राखत ॥ तुमसे महानुभावनि हूँ के होते जग मैं । इक सामान्य गृहस्थ भूप को ब्रत किहिँ मग मैं ॥३१॥