पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९९

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ऐसहि तुच्छ कपट छल सौँ महिमा विस्तारी । भया सकल जग मैं बिख्यात सत्य-व्रत-धारी ॥ दई दान तैं अब समस्त महि भई हमारी । राज-कोष को अब तैं मूढ़ कौन अधिकारी ॥ १९ ॥ जो बुलाइ मंत्रिहिं ऐसी यह कीन्हि ढिठाई । मुद्रा आनन की आयसु सानंद सुनाई ॥ रे मतिमंद ! अमंद कुटिल ! रे कपट-कलेवर ! कहा घटत कहु बिना बने ऐसौ दानी नर" ॥ २० ॥ सुनि मुनिवर के परुष बचन कछु भूप सकाए। बोले बचन निहोरि जोरि कर बिनय-बसाए । "छमा-छमा ऋषिराज दया-सागर गुन-आगर । छमा-छमा तप-तेज-तरनि तिहु-लोक-उजागर ॥ २१ ॥ साँचहिँ अब समुझात बात हम अनुचित कीन्ही । मंत्रिहिँ जो मुद्रा आनन की आयसु दीन्ही ॥ हम अवगुन के कोस किये सब दोष तिहारे । तुम गुन-सिंधु अगाध छमहु अपराध हमारे ॥ २२ ॥ जिहि तिहिँ भाँति सहस्र स्वर्ण-मुद्रा सब दैहैं। दारा सुअन समेत याहि ऋण-हेत बिकैहैं । पुनि मुनि करि ~ बंक सहित आतंक उचारचौ । "रे रबि-कुल-कलंक मति-रंक हमैं निरधारचौ ।। २३ ।।