पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/११२

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१०८ रवीन्द्र-कविता-कानन कर किसे बुलाती हैं ? देखो --वे झूम रही -बता दो मुझे-वे किसकी गोद पर बैठ कर झूम रही हैं ? सदा हम-हँस कर लहालोट हो जाती हैं, और दौड़ी चली जा रही हैं-किसकी ओर जा रही है ? वे सबके मन को संतुष्ट करके खुद भी आनन्द में हैं । X x बैठा हुआ मैं यह सोचता हूँ कि नदी कहाँ से उतर कर आई है ? वह पहाड़ भी कहाँ है ? क्या उसका नाम कोई जानता है ? क्या वहाँ कोई आदमी भी रहता है ? वहाँ तो न पेड़ है न घास; न वहां पशु-पक्षियों का घर है, वहाँ का कोई शब्द भी तो नहीं सुन पड़ता, बस एकमात्र महर्षि पर्वत बैठे हुए उनके सिर पर केवल सफेद बर्फ छाई हुई है । कितने ही मेघ घर से बच्चे की तरह वहाँ रहते हैं ! सिर्फ हिम की तरह ठढो हवा सदा आया-जाया करती है, उसे कोई देखता है तो बस सारी रात आँखे फाड़-फाड़ कर उसे देखते ही रहते हैं । केवल सुबह की किरण बहाँ आती है और हँस कर उसे मुकुट पहना जाती X x x 1 उस नीले आसमान के पैरों पर कोमल मेंधों की देह में, शुभ्र तुषार की छाती पर अपने स्वप्नमय सुख के साथ नदी सोती रहती है ! न जाने कब उसके मुंह में धूप लगी थी, देखा न नदी जग पड़ी है । धूप के लगने पर उसे न जाने कब खेल को याद आ गई ! वहाँ उसके खेलने के साथी और कोई न थे, थे बस दिन और रात ! वहाँ किसी के घर में बात-चीत नही होती, कोई गाता भी नही । इसीलिये तो धीरे-धीरे झिर-झर झुर-झुर करती हुई नदी वहाँ से निकल चली। उसने सोचा, संसार में जो कुछ है, सब देख लेना चाहिये । नोचे पहाड़ की छाती भर में फैले आकाश को छेद कर पेड़ निकले हुए हैं । वे सब बड़े पुराने पेड़ हैं, उम्र उनकी कौन जाने कितनी होगी ! उनके कोटरों में और हर एक गाँउ में लकड़ियाँ और तिनके चुन-चुन कर पक्षी घोसले बनाते हैं । उन लोगों ने काली-काली डालियाँ फैला फैला कर सूरज के उजाले को बिल्कुल छिपा लिया है । उनकी फूनों में जटा की तरह न जाने कितना सिवार लिपटा हुआ झूल रहा है । उन्होन एक-दूसरे के कन्धे से कन्धा मिला कर मानों अन्ध- कार का जाल बिछा रखा है । उनके नीचे बड़ा एकांत है, नदी वहाँ जा कर हंस पड़ती है, और हंसती हुई वहाँ से चल देती है । उसे अगर कोई पकड़ना चाहे तो पकड़ नहीं सकता, वह दौड़ कर भाग जाती है । वह सदा इसी तरह