पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/११३

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रवीन्द्र-कविता-कानन १०६ छुई-छुअल खेलती रहती है और उसके पैरों में पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े बजते रहते हैं। x रास्ते पर जोशलाओं की राशि मिलती है, उसे वह मुस्कराती हुई पैरों से ठेल कर चली जाती है । पहाड़ अगर रास्ता धेरै हुए खड़ा हुआ हो तो हँसती हुई, वह वहाँ से घूम कर जाती है । वहां ऊंचे उठी सीगों और लटकती हुई दाढ़ी वाले सब जङ्गली बकरे रहते हैं । वहाँ रोओं से भरे हुए हिरन रहते हैं, वे किसी को पकड़ाई नहीं देते । वहाँ एक नये ढंग के आदमी रहते हैं । उनकी देह बड़ी मजबूत होती है। उनकी आँखें तिरछी होती हैं और उनकी बात समझ में नहीं आती । वे पहाड़ की संतानें हैं । वे सदा गाते हुए काम करते हैं। वे दिन भर मिहनत करके बोझ भर लकड़ी काट कर लाते हैं । वे पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर जंगली हिरणों का शिकार किया करते हैं । x x X नदी जितनी ही आगे-आगे चलती है, उतने ही उसके साथी भी होते जाते हैं; दल के दल उसकी तरह वे भी घर-द्वार छोड़ कर निकल पड़े हैं। उसके पैरों में पत्थर की गोलियों की ठनकार होती रहती है, जैसे कड़े और चूड़ियां बजती हों। उसकी देह में किरणें ऐसी चमकती हैं जैसे उसने हीरे की चिक (टीक) पहनी हो। उसके मुख में कल कल स्वर से कितनी ही भाषायें निकलती हैं, भला इतनी बात कहाँ से आती है ? अन्त में सब सखियां एक-दूसरे से मिल. जुल कर हँसती हुई झूम-झूम कर एक दूसरे की देह में गिरती हैं। फिर-- भेंटते समय के कलरव के साथ ही वे सब एक हो जाती हैं । तब कल-कल स्वर से पानी बह चलता है, धरा ट्लमल टल्मल काँपने लगती है । कहीं झर. झर स्वर से पानी नीचे गिरता है, और पत्थर थर्राने लगता है । शिलाओं के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, नदी, नाला काट कर चली जाती है। रास्ते के जितने बड़े-बड़े पेड़ हैं सब गिरने पर हो जाते हैं । कितने ही बड़े-बड़े पत्थरों के चहार टूट-टूट कर झपाझप पानी में गिरने लगते हैं । तब गली हुई मिट्टी के गंदले पानी में फेनों का दल बह चलता है । यानी भंवर उठती है और पागल की तरह वह भी दौड़ चलती है। नदी पर लिखी महाकवि की इस कविता की आलोचना करने की आवश्यकता नहीं। कविता के भाव आपने खूब प्रस्फुट कर दिये हैं ।