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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

के बिना, रागिनी के सच्चे अलाप से उसका यथार्थ चित्र श्रोताओं के सामने अंकित जाता है, उसी तरह छन्दों के आवर्त से ही रवीन्द्रनाथ की कविता का भाव प्रयत्क्ष होने लगता है।

एक कविता है 'याचना'। कविता शृगार-रस की है, बहुत छोटी है। परन्तु उतने ही में नायक की याचना पूरी हो जाती है। वह जितने तरह की याचनाएं अपनी नायिका से कर सकता है, सब उतने में ही आ जाती हैं। तारीफ रह कि है तो श्रृंगाररस, परन्तु अश्लील याचना कहीं नहीं होती। सब याचनाओं में भाव की ही भिक्षा पाई जाती है। पढ़ कर पाठकों को फिर क्यों न भावावेश हो जाय?

'भालो बेसे सखि निभृत यतने
आमार नामटी लिखियो—तोमार
मनेर मन्दिरे। (१)
आमार पराणे जे गान बाजिछे
ताहार तालटी सिखियो-तोमार
चरणबम जिरे।"(२)

अर्थ:—ऐ सखि! प्यार करके, एकान्त में यत्नपूर्वक, अपने मनोमन्दिर में मेरा नाम लिख लेना (१)। मेरे प्राणों में जो संगीत बज रहा है, उसकी ताल, अपने पैरों में बजने वाले नूपुरो से सीख लेना (२)।

नायक की प्रार्थना कितनी सीधी है, परन्तु कहने का ढंग गजब कर रहा है। मूल कविता में कला की कहीं कोई कसर नहीं रहने पाई, बल्कि उसका रूप इतना सुन्दर अंकित हो गया कि बड़े-बड़े वाक्यों की प्रशंसा भी उसके आसन तक नहीं पहुँच पाती। भावों के साथ रवीन्द्रनाथ के छन्द और भाषा पर भी ध्यान दीजिये। जो जिसे प्यार करता है और दिल से प्यार करता है, वह उसका नाम प्रकट नहीं होने देता। वह उसको हृदय के सबसे गुप्त स्थान में छिपाये रहता है। नायिका से नायक की यही याचना है। पद्य के दूसरे हिस्सेवाली नायक की याचना कलेजे में चोट कर जाती है। उसके प्राणों में उसकी प्रियतमा की जो रागिनी बज रही है—प्यार की जो अलाप उठ रही है, उसको ताल उसकी नायिका के नूपुरों में गिरती है! कितनी बारीक निगाह है! प्रेम की एक ही डोर के खिंचाव में दो मनुष्यों की संसृति हो रही है। नायक के गले में जिस प्रेम की रागिनी बजती है, नायिका की गति में उसके