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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कविता गा कर पढ़ने का रिवाज प्रचलित है,—साधारण से ले कर अच्छे से अच्छे कवि कविता को गा कर पढ़ते हैं, अतएव प्राचीन कवि भी जिनसे उत्तराधिकार के रूप में कविता को गा कर पढ़ना हमें प्राप्त हुआ है और हम अब भी उसकी मर्यादा को पूर्ववत् अचल और अखण्डनीय बनाये हुए हैं, कविता का पाठ गा कर ही करते रहे होंगे। परन्तु यह मानी हुई बात है कि कविता एक और कला है और संगीत एक और। अतएव यह निःसन्देह है कि अच्छी कविता लिखने वाले किसी कवि के लिए अच्छा गा लेना कोई ईश्वरीय नियम नहीं। तात्पर्य यह कि कवि हो कर, साथ ही कोई गवैया भी नहीं बन सकता; परन्तु कविता की तरह, सीख कर गाने की बात और है। यहाँ मैं यह सिद्ध नहीं कर रहा हूँ कि आजकल के मुशायरे ब्रह्मभोज के कराह मलते समय की किरकिरी आवाज को मात करने वाले कविता गायक कवियों की तरह पिछले जमाने में सभी कवि में थे, नहीं सूरदास जैसे सुगायक सिद्ध महाकवि भी हिन्दी में हो गये हैं। यहाँ इस कथन में मेरा लक्ष्य यह है कि शब्द-शिल्पी संगीत-शिल्पियों की नकल न करें तो बहुत अच्छा हो। कविता भावात्मक शब्दों की ध्वनि है, अतएव उसकी अर्थ-व्यंजना के लिये भावपूर्वक साधारणतया पढ़ना भी ठीक है, किसी अच्छी कविता को रागिनी में भर कर स्वर में माजने की चेष्टा करके उसके सौन्दर्य को बिगाड़ देना अच्छी बात नहीं।

ठीक यही बात गाने वाले के लिये भी है! उसके पास स्वर है, पर शब्द नहीं। उसके स्वर की धारा बड़ी ही साफ है, परन्तु जिन शब्द-वीचियों की सहायता से उसकी क्रीड़ा लक्षित हो रही है, उनमें वैसी एकता, सौन्दर्य-शृंखला और चमक बिल्कुल नहीं है। कर्मनासा के जल की तरह उन्हें देख कर लोग उनसे तृष्णा-निवृत्ति की आशा छोड़ देते हैं—उनमें वैसी कोई शक्ति नहीं जो प्रारणों में पैठ कर उन्हें शीतल कर सके। हम देखते हैं, गवैयों के रचे हुए संगीत के जितने भी काव्य हैं, उनका अधिकांश उद्देश्य किसी तरह उनसे निकाला गया है—अलावा इसके कविता की दृष्टि से उनमें कोई दम नहीं।

हिन्दी में सूर, कबीर, तुलसी और मीराबाई आदि बहुत से महाकवि ऐसे हो गये हैं, जिन्हें हम समस्वर से शब्द-शिल्पी भी कहते हैं और सुगायक भी; मीरा और सूर के लिये तो केवल यह कहना कि अच्छा गाते थे, अपराध होगा, ये संगीत-सिद्ध थे,—संगीत की उस कोमलता तक पहुँचे हुए थे जहाँ परम-कोमल सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण की स्थिति है।