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रवीन्द्र-कविता-कानन
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नवीन जागरण ला रहा है (कि उसके स्पर्श मात्र से शरीर में सजीवता आ रही है,— इस तरह वह प्राणों पर पड़े हुए पर्दे को हटा देता है।) जीवन की जड़ता, मोह और आलस आदि को दूर कर देता है।)॥३॥ सुख और दुःख के समय हृदय में न जाने व्यथा के कितने झोंके लगते हैं।—उन्हें मैं किस तरह समझा कर कहूँ—मुझे उसकी भाषा नहीं मालूम। आज मेरी ही वासनाएं" सारे संसार में मुखरित हो रही हैं। उनकी आहों से वृक्ष, जङ्गल, नदी आदि काँप रहे हैं। अचानक न जाने किसकी वीणा सुमधुर स्वर से बज उठी॥४॥

इस संगीत की रचना में महाकवि ने छायावाद का आश्रय लिया हैं। यों तो जान पड़ता है कि कविता निराधार है—आसमान में महल खड़ा करने की युक्ति की तरह बेबुनियाद है, परन्तु नहीं, हृदय के सच्चे भावों को चित्र का रूप देकर महाकवि ने इस कविता में जीवन की अमर स्फूर्ति भर दी है। इस कविता में जितना ऊँचा कवित्व है—प्राणों की भाषा का जितना उच्च विकास है, उतना ही गम्भीर दर्शन भी है। हमारे मनोज्ञ, पण्डित कहते हैं, बाहरी संसार के साथ मन का जबरदस्त मेल है, जब मन में किसी प्रकार का हर्ष अपनी मनोहर महिमा पर इतराता रहता है, तब उसका चित्र हमें बाहरी संसार में भी देख पाता है,—उसकी छाया—वैसा ही भाव बाहरी संसार में भी हम प्रत्यक्ष करते हैं,—मानों संसार का एक-एक करण हमारे सुख के साथ सहानुभूति रखता हुआ हमारे हर्ष की प्रतिध्वनि में हमें सुना रहा है; और जब दुःख की अधीरता हृदय को डावांडोल कर देती है, तब भी हम बाहर संसार में मानों उसी की मलिन रेखा पात-पात में प्रत्यक्ष करते हैं। यहाँ, इस कविता में महाकवि के हृदय में पहले सुख का अंकुर निकलता है, फिर वही वासना में रूप के में फैल कर बढ़ जाता है—इतना बढ़ता है कि तीनों लोक को अपने विस्तार से ढक लेता है। यही इस कविता की बुनियाद है और चित्रण की अपूर्व कुशलता इसका मनोहर शरीर। हृदय में सुख-साम्राज्य के फल कर वासना को वशी छेड़ने के साथ ही महाकवि के मुख से निकलता है—

"बाजिलो काहार वीणा मधुर स्वरे
आमार निभृत नव जीवन परे"—

महाकवि का जीवन नवीन है—एकान्त में सुरक्षित है, और वहीं एक बीणा मधुर स्वर से बजती है। हम कह चुके हैं यह सुख की वीणा है, यौवन के निर्जन प्राप्ति में वीणा महाकवि को मुग्ध करने के लिये बज रही है। परंतु