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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

गयी बङ्गला के प्रसिद्ध औपन्यासिक शरतबाबू की यह राय कि "मेरा विश्वास है, भारत में इतना बड़ा कवि नहीं पैदा हुआ" बहुत अंशों में सच है। मुझे भी विश्वास है कि तुलसी को छोड़ कर मुसलमानी शासन-काल से लेकर आज तक इतना बड़ा कवि भारत में नही पैदा हुआ।

'संध्या-संगीत' अलक्ष्य भाव से 'प्रभात-संगीत' की ओर इशारा करती है, जैसे कुछ दिनों में इस नाम की पुस्तक भी निकलने वाली हो। ऐसा ही हुआ। 'सन्ध्या-संगीत' के प्रकाशित हो जाने पर कुछ दिनों में 'प्रभात-संगीत' भी निकला। इसने बङ्गला-साहित्य में धूम मचा दी। इसकी भाषा, इसके भाव, इसके छन्द, सब विचित्र ढंग के; एक बिल्कुल अनूठापन लिये हुए। इस तरह की कविता बङ्गालियों ने पहले ही पहल देखी थी, और निस्सन्देह कविताएँ कवित्व की हद्द तक पहुँची हुई हैं। बहुतों को यहां तक भी विश्वास है कि रवीन्द्रनाथ को कविताओं में 'प्रभात-संगीत' के पद्य सर्वश्रेष्ठ हैं, कम से कम ओज और छन्दों के बहाव के विचार से तो अवश्य हो श्रेष्ठ है। फिर इनका 'विविध-प्रसंग' निकला। इसकी भाषा बिल्कुल नये ढंग की है। अपने पुराने उपन्यासी में रवीन्द्रनाथ जिसे आदर की दृष्टि से देखते हैं, वह 'बहू ठाकुरानीर हाट' भी इसी समय निकला था।

रवीन्द्रनाथ के 'प्रभात-संगीत' की कविताएँ आगे दी गयी है। उनसे मालूम हो जाता है कि रवीन्द्रनाथ के हृदय में किस तरह की उथल-पुथल मची हुई थी? संसार से मिलने के लिये वे किस तरह व्याकुल हो रहे थे। हृदय का बंद द्वार कविता के आते हा खुल गया और प्रेम को जो धारा बही, उन्हें उनकी कविताओ के साथ, सार भर में बहाती फिरी।

१८८३ ई० मे, कुछ समय तक व करवार—पश्चिमी उपकूल मे रहे। यहाँ वे प्रसन्न रहते थे। यहाँ की प्रकृति—उसकी विशालता—दूर तक फैली, आकाश से मिलती हुई, उन्हें बहुत पसन्द आई। इसी साल, दिसम्बर में २२ वर्ष उम्र में, उनका विवाह हो गया।

'प्रकृतिर परिशोध' लिखने के बाद कलकत्ता लौट कर उन्होंने 'छबि ओ गान' लिखा। कलकत्ता, जोड़ासाँको-भवन से वे नजदीक की कुटियों में रहनेवाले निर्धन गृहस्थों का जीवन, दैनिक स्थिति, एकान्त में चुपचाप बैठे देखा करते थे। सहानुभूतिशील कवि-हृदय में उसका प्रभाव पड़े बिना न रहता था। इस पर उन्होंने दुःखान्त एक नाटक लिखा—'नलिनी।' अब यह पुस्तक अप्राप्य