देखा होगा। भयानक अवस्था में पड़े हुए भी जिसका ज्ञान कवि को नही हो रहा था, पहले उसी की मूर्ति देखी होगी। अर्थात् ज्ञान होने पर पहले कवि ने अपने अज्ञान का अनुभव किया होगा। परन्तु कवि कहता है, मेरे चारों ओर पत्थरों का घोर कारागार है। इस 'चारो ओर' शब्द से सूचित होता है कि कवि को बाहर भी घोर अज्ञान देख पड़ा होगा—उसे बाहर के मनुष्य—उसके पास-पड़ोस वाले भी अज्ञानदशा में दीख पड़े होगें। कवि का यह दर्शन निरर्थक नहीं। उसके चारों ओर जो प्रकृति नजर आई, वह भारत है। यहाँ पत्थर के कारागृह में कवि के साथ भारत भी है। आगे की पंक्ति में यह अर्थ और समझ में आ जाता है। जहाँ कवि कहता है,—हृदय पर अंधकार बैठा हुआ अपना ध्यान कर रहा है, वहाँ अंधकार के साथ कवि अपने मोह का उल्लेख करता है और देश को दुर्दशाग्रस्त करने वाले विदेशियों का भी । यहाँ विदेशियों की तुलना अन्धकार के साथ करके, उसे अपने और साथ ही देश के हृदय पर बैठ कर अपना ध्यान करता हुआ यानो अपना स्वार्थ निकालता हुआ बतला कर कवि देश की दुर्गति का चित्र ही आँखों के सामने रख देता है। यह अंकन इतनी सफलतापूर्वक किया गया है कि इसकी प्रशसा के लिये कोइ योन्य शब्द ही नहीं मिलता। यह पद्य एक ही अर्थ की सूचना नहीं देता, उसका पहला अर्थ खुला है, और वह पढ़ने के साथ पहले आध्यात्मिक भाव की ओर इंगित करता है। हृदय ज्ञान होने से पहले अन्धकाराच्छन्न हो रहा है। वहाँ किसी प्रकार का प्रकाश प्रवेश नहीं कर पाता। अन्धकार वहाँ बैठा हुआ अपने ध्यान में मग्न है। हृदय में अनेक प्रकार की अविद्याओं का राज्य हो रहा है। अविद्या के प्रभाव से वहां जितने प्रकार के अनर्थ हो सकते हैं, हो रहे हैं। ऐसे समय एका-एक हृदय पर की वह काली यवनिका उठ जाती है, वहाँ विद्या का प्रकाश फैल जाता है। अचानक यह परिवर्तन देख कर कवि अपने प्रकाश पुलकित दृश्य से कह उठता है—आज इतने दिनों बाद मेरे प्राणों में यह कैसा जागरण हो गया?
अपने प्रेम और आनन्द के अनादि प्रवाह में बहता हुआ कवि कहता है—
"घुमाये देखिरे जेन स्वपनर मोह माया,
पड़ेछे प्राणेर माझे एकटी हासिर छाया।
तारि मुख देखे देखे, आंधार हासिते सेखे,