पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/४२

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३८ रवीन्द्र-कविता-कानन तारि मुख चेये चेये करे निशि-अवसान, सिहरि उठेरे वारि दोलेरे दोलेरे प्राण, प्राणेर माझारे भासि, दोलेरे दोलेरे हासि, दोलेरे प्राणेर परे आशार स्वपन मम दोलेरे तारार छाया सुखेर आभास सम । प्रणय प्रतिमा जवे स्वपन देखेरे कवि, अधीर सुखेर भरे कांप बुक थरे थरे, कम्पमान वक्ष परे दोले से मोहिनी छवि, दुखीर आधार प्राणे सुखेर संशय यथा, दुलिया दुलिया सदा म दु म.दु कहे कथा; मदु भय, कभु मदु आश मदु हासी, कभु म दु श्वास । बहु दिन परे सोन विस्म त गानेर तान, दोलेरे प्राणेर माझे दोलेरे आकुल प्राण; आध, आध, जागिछे स्मरणे, पड़े पड़ नाहीं पड़े मने। तेमनी तेमनी दोले, ताराटी आमार कोले, कर ताली दिये वारि कल कल गान गाय दोलाये दोलाये जेनो घूम पड़ाइते चाय !" (सोते हुए मैंने देखा, स्वप्न की मोह-माया की तरह मेरे प्राणों में हँसीकी एक छाया पड़ी हुई है । उसी का मुंह देख देख कर अन्धकार भी हँसना सीखता है और उसी का मुँह जोहता हुआ वह रात्रि का अवसान कर देता है; (यह देख) पानी भी सिहर उठता है और मेरे प्राण भी झूमते रहते हैं। प्राणों के भीतर तैरती हुई हँसी भी झूम रही है उसमें भी मन्द-मन्द कम्पन हो रहा है और मेरे प्राणों में मेरी आशा का स्वप्न झूम रहा है और वहाँ झूमती-हिलती- काँपनी है सुख के आभास की तरह तारों की छाया । जब स्वप्न में कवि अपनी प्रणय-प्रतिमा को देखता है, तब अधीर-सुख पर निर्भर--हृदय थर-थर कांपने लगता है और उस कम्पमान हृदय पर काँपती है वह मोहनी छवि-जिस तरह दुखी के हृदय पर अन्धकार-प्राणों में सुख का संशय सदा कॉप-काँप कर मृदु-मृदु बातें किया करता है । जिसमें मृदु भय भी है और कभी मृदु आशा