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रवीन्द्र-कविता-कानन
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भी झलक जाती है—मृदु हंसी है और कभी मृदु साँस भी बह चलती है। वह बहुत दिनों के बाद सुनी हुई भूलें संगीत की तान हैं, जो प्राणों में काँप रही है और जिससे प्राण भी काँप रहे हैं, जिसकी अध-मुदी स्मृति मेरे स्मरण-पथ पर जग रही है—अभी अभी आती है और फिर मुझे विस्मृति में छोड़ जाती है—इसी तरह वह तारा मेरी गोद में कांप रहा हैं, लहरियाँ तालियाँ बजा बजा कर गाती हैं, मुझे झूले में झुला कर मानों सुला देना चाहती हैं।)

जागरण के बाद यह कवि का आनन्दोद्गार है। वह सो रहा था—दृष्टि के आगे अँधेरा ही अंधेरा छाया हुआ था; ऐसे समय एक छोटी-सी तरंग की तरह स्वप्न की सुन्दरता और चंचलता की तरह उसके हृदय में हँसी की एक बहुत छोटी लहर उठती है—अपने कंपन के साथ—अपनी मृदु चंचलता के साथ—उसे भी चंचल कर देती है—उसे भी कंपा देती है। यहाँ कवि के दार्शनिक ज्ञान का भी आभास मिलता है और कविता में युक्ति की पुष्टि । कवि के हृदय में जब चक्राकार हँसी की हिलोर उठती है तब उसके साथ केवल वही नहीं किन्तु सम्पूर्ण विश्वछवि उसे डोलती हुई और हँसती हुई नजर आती है। उसकी हँसी के मृदु कंपन के साथ अन्धकार हेमता है, पानी की हिलोरें हँसती है, तारों की छाया में हँसी का कंपन भर जाता है, स्वप्न की प्रणय-प्रतिमा हृदयके नृत्य के साथ-साथ हँसती है। दार्शनिक कहते हैं, जैसा भाव हृदय में होता है, बाहर भी उसी भाव की छाया देख पड़ती है। जब दु:ख होता है तब जान पड़ता है, सम्पूर्ण प्रकृति खून से आँसू बहा रही है और जब हृदय में आनन्द का नृत्य होता है तब प्रकृति के पल्लव-पल्लव में उसे आनन्द का नृत्य देख पड़ता है। इस तरह दार्शनिक भीतर की प्रकृति और बाहर की प्रकृति में कोई भेद नहीं बतलाते। यहाँ महा-मकवि रवीन्द्रनाथ की जागृति के साथ ही जिस हँसी की छाया आ कर उनके प्राणों को खिला जाती है, उसके साथ हम देखते है, विश्वम्भर की प्रकृति कवि के इस आनन्द-स्वर में अपना स्वर मिला कर उनकी मनोनुकूल रागिनी गाने लगती है। इस हँसी के चरित्र चित्रण में आपने कमाल किया है। अन्धकार को हँसा कर। जो अंधकार पहले छाती का डाह हो रहा था, वह कवि की इस हँसी का मुँह देख-देख हँसना सीख रहा है। 'तारि मुख देखे-देखे, आँधार हासिते सेखे'—इसका मुख देख-देख कर अंधकार हँसना सीखता है, इस वाक्य में साहित्य के साथ मनोविज्ञान की पूरी छटा है। अंधकार स्वभावतः गम्भीर है। उसके लिये हँसना अपनी प्रकृति का अपमान करना है। और पहले कवि