पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/४७

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रवीन्द्र-कविता-कानन भूधर यह प्रतिभा-विकास की यौवन छटा है। आगे चल कर अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिये महाकवि लिखते हैं :- "आमि-ढालिब करुणा-धारा आमि-भांगिब पाषाण-कारा, भामि–जगत् प्लाविया बेड़ाब गाहिया आकुल पागल पारा। केश एलाइया, फूल कुड़ाइया, रामधनु आंका पाखा उड़ाइया, रविर किरणे हासी छड़ाइया दिबरे पराण ढाली। शिखर होइते शिखरे घुरिब, होइते भूधरे लुटिब, हेसे खल खल, गेये कल कल ताले ताले दिब ताली। तटिनी होइया जाइब बहिया- जाइब बहिया–जाइब बहिया- हृदयेर कथा कहिया कहिया गाहिया गाहिया गान्, जतो देव प्राण बहे जाबे प्राण, फुराबें ना आर प्राण । एतो कथा आछे, एतो गान आछे एतो प्राण आछे मोर एतो सुख आछे एतो साध आछे, प्राण होये आछे भोर ।" (मैं करुणा की धारा बहाऊँगा, मै पाषाण का कारागार तोड़ डालूंगा, मैं संसार को प्लावित करके व्याकुल पागल की तरह गाता हुआ घूमता फिरूंगा। मैं अपने बाल खोल कर फूल चुन कर, अपने इन्द्रधनुष के पंख फैला कर सूर्य की किरणों में अपनी हंसी मिला कर सब में जान डालूंगा । मैं एक शिखर से दूसरे शिखर पर दौड़गा, एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर लोटूंगा, खिलखिला कर हँसूंगा, कल-कल स्वरों में गाऊँगा और ताल-ताल पर तालियां बजाऊँगा । मैं नदी बन ।