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रवीन्द्र-कविता-कानन
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उच्चारि उठिले उच्चे—"सुनो विश्वजन
सुन अम तेर पुत्र जतो देवगण
दिव्यधामवासी, आमि जेनेछि तांहरे,
महान पुरुष जिनी आंधारेर पारे
ज्मोतिम य तारे जेने, तार पाने चाही
म त्युरे लंधिते पार, अन्य पथ नाही!"
आर वार ए भारत के दिवे गो आनी
से महाआनन्दमय, से उदात्त वाणी
संजीवनी; स्वर्गे मत्र्ये सेई म त्युजय
परम घोषणा; सेई एकान्त निभय
अनन्त अमत वानी!
रे मृत भारत!
सुधु सेई एक आछे नाहि अन्य पथ!

(हे महामनीषी! तुम कौन हो?—एक समय भारत के किसी अरण्य की छाया में किस आनन्द के उछ्वास में आकर तुमने यह उच्चारण किया था? 'हे विश्व के मनुष्यो! हे दिव्य धाम के रहने वाले अमृत के पुत्र देवताओं! सुनो, उस महापुरुष को हमने जान लिया है—वे ज्योतिर्मय पुरुष अन्धकार के उस पार रहते हैं। उन्हें जान कर उनकी ओर दष्टि करके तुम मृत्यु की सीमा को पार कर सकते हो, और दूसरा मार्ग नहीं है।' हे महर्षि! वह महा आनन्दमयी—जीवन-संचार करने वाली—उदात्त वाणी,—स्वर्ग और भर्त्य के बीच में मृत्यु के जीतने की वह परम घोषणा,—अनन्त की वह निर्भय अमृत वार्ता और कौन देगा? अरे मृत भारत! तेरे लिये वही एक मार्ग है, और कोई पथ नहीं है!)

प्राणों में बिजली की स्फूर्ति भर देने वाली, मुरदों में भी जान डाल देने वाली हृदय के सुप्त तारों में झंकार की तीव्र कंपन ध्वनि भर देने वाली अपनी ओजस्विनी कविता में, उसी विषय को लेकर महाकवि फिर कहते हैं—

"ऐ मृत्यु छेदिते हबे, एई भयजाल,
एई पुञ्ज-पुजीभूत जड़ेर जञ्जाल;
मत आवर्जना! ओरे जागितेई हबे
ए दीप्त काले, ए जाग्रत भवे,