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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

एई कम धामे! दुई नेत्र करि आधा
ज्ञाने बाधा; कम बाधा, गति पथे बाधा,
आचारे विचारे बाधा करि दिया दूर
धरिते हइबे मुक्त बिहंगेर सुर
आनन्दे उदार उच्च! समस्त तिमिर
भेद करि देखिते हइबे उर्ध्व सिर
एक पूर्ण ज्योतिम ये अनन्त भुवने!
घोषणा करिते हवे असेशय मने—
"ओगो दिव्यधामवासी देवगण जतो
मोरा अम तेर पुत्र तोमादेर मतो।"

(इस मृत्यु का उच्छेद करना होगा—इस भयपाश का कृतान करना होगा —यह एकत्र हुई जड़की राशि-मृत निस्सार पदार्थ दूर करना होगा। अरे —इस उज्ज्वल प्रभात के समय, इस जाग्रत संसार में, इस कर्मभूमि में, तुझे जागना ही होगा। दोनों आँखों के रहते भी वे फूटी हैं; यहाँ ज्ञान में बाधा है, कर्मों में बाधा पड़ रही है, चलने फिरने में भी बाधा है और आचार-विचार? वे भी बाधा में बंधे हुए हैं। इन सब बाधाओं को पार करना होगा और आनन्दपूर्वक उदार उच्च कण्ठ से मुक्त विहङ्गों का स्वर अलापना होगा। सम्पूर्ण तिमिर-राशि का भेद करके अनन्त भुवनों में एकमात्र ऊर्द्ध व सिर उस में पूर्ण ज्योतिर्मयी की देखना होगा। चित्त की सारी शंकाओं को दूर करके घोषणा कर—'हे दिव्य-धामवासी देवताओ! तुम्हारी तरह हम भी अमृत के पुत्र है!"

महाकवि वर्तमान पश्चिमी सभ्यता पर कटाक्ष कर रहे हैं—

"शताब्दीर सूर्य आजि रक्तमेघ माझे
अस्त गेलो,—हिंसार उत्सवे आजि बाजे
अस्त्रे अस्त्रे मरणेर उत्माद-रागिनी
भयंकरी! दयाहीन सभ्यता-नागिनी
तुलेछे कुटिल फण चक्षेर निमिषे!
गुप्त विष-दन्त-तार भरी तीब्र विषे
स्वार्थे स्वार्थे बेधे संघात लोभे-लोभे
घटेछे संग्राम;—लय मथन-क्षोभे