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रवीन्द्र-कविता-कानन
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भद्र वेशी बर्बरता उरियाछे छागी
अंकशय्या होते! लज्जा शरम तेयागी
जाति-प्रेम नाम धरि चण्ड अन्याय!
घर्मेरे भासाते चाहे बलेर वन्याय
कवि-दल चीतूकारिछे जागा भीति
श्मशान-कुक्कुर देर काड़ा काड़ी-गीति!!"

(रक्तवर्ण मेघों में आज शताब्दियों के सूर्य—अस्त हो गये। आज हिंसा के उत्सव में, अस्त्रों की झनकार के साथ ही साथ, मृत्यु की भयंकर उन्मादरागिनी बज रही है। निर्भय सभ्यता-नागिनी अपने विष वाले दाँतों में तीखा जहर भर कर क्षण-क्षण में अपना कुटिल फन खोल रही है। स्वार्थ के साथ अस्वार्थ का संघात हो रहा है,—लोभ के साथ लोभ का संग्राम मचा हुआ है। मथ कर प्रलय को ला खड़ा करने के उद्दाम रोष से, भद्रवेशिनी बर्बरता अपनी पंक-शय्या से जग कर उठी है, लाज-शर्म से हाथ धो, जाति-प्रेम के नाम से प्रचंड अन्याय धर्म को अपने बाल की बाढ़ में बहा देना चाहता है। कवियों का समूह पंचम स्वर में श्मशान-श्वानों की छीना-झपटी के गीत अलाप रहा है और लोगों में भय का संचार कर रहा है।)

शताब्दियों के सभ्यता सूर्य को पश्चिमी रक्तवर्ण मेघों में अस्त कर के, पश्चिमी सभ्यता का जो नग्न चित्र महाकवि ने इन पंक्तियों में दिखलाया है, वह तो पूरा उतरा ही है; इसके अलावा महाकवि को साहित्यिक बारीकियों पर भी यहाँ एकाएक ध्यान चला जाता है। उनकी इस उक्ति में जितनी स्वाभाविकता आ गई है, उतनी ही उसमें कवित्व-कला की विभूति भी है। रक्तवर्ण मेघों में सभ्यता-सूर्य अस्त होते हैं। एक तो स्वभावतः सूर्य के अस्त होने पर मेघ लाल-पीले देख पड़ते हैं, दूसर मेघों की रक्तिम आभा पश्चिमी सभ्यता के संग्राम-वर्णन की साहित्यिक छटा को और बढ़ा देती है; क्योंकि संग्राम या रजोगुण का रंग भी लाल है-इसी संग्राम या रजोगुण में शताब्दियों के सभ्यता सूर्य अस्त हो गये हैं—अब वह उज्ज्वल प्रकाश नहीं है। अब ललाई मात्र रह गई है। इसके बाद है रात्रि का अंधकार-तमोगुण!

जातीय संगीतों के गाने वाले कवियों की उपमा रवीन्द्रनाथ ने मरघट के