पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१०

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गीतकारक और बालकृष्ण शर्मा प्रस्तुत सम भाई बासकुम्पा के गीता का सग्रह है। कदाचित् कम के बाद उनकी यह दूसरी सप्र-पुस्ता है। अपनी कवियों को प्रकाशित करने का उनसे हम लोगों का पका आग्रह रहा है और ऐसा शात होता है कि उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है। पाश्चात्य समीक्षकों ने गीतों के संबंध में प्री मीमांसा की है। किसी परिस्थिति किसी भाव किसी प्राण सम्पन विचार किसी रूप व्यापार पर कुछ एसी गेय पक्षियों जो निज में पूर्ण और कवि यतित्य म सनी रहती हैं गीत कह हैं। उनका प्रथम और मुल त व सगीत है। समीक्षका का यह भी निष्कर्ष है कि अब कवि वाबार्थों से हर का आभ्यतर की अनुभूतिया का गान गाने लगता है तब गीतों की सृष्टि हाती है। इस कविता को उ हाने स्वानुभूति निरूपिणी (Subjective) कहा है भार अय को पाया निरूपिणी (Objective) कहा गया है। उनके कथनानुसार समस्त गीत-झाम स्वानुभूतिनिरूपक होता है। अग्रेज समीक्षक बहुधा नाम की सृष्टि करके उसके बारा भार अपनी यास्या पहनाने का प्रयत्न करता है । उस नाम का धान कुछ समय तक रहता है और बाद का समीक्षक उसका खान मडन करता रहता काम को थामार्थनिरूपक और स्वानुभूतिनिरूपक दो वर्गों में बाँट देना स्थूल बुद्धि का काम है । कविता फोटो की मोति बाह्यार्थों का अथवा दृश्य जगत के रूप यापारा को बिन प्रतिविम्म भाव स सामने नहीं रखती। अन्यथा वह पतित कला न रह जायगी । बायाथा और पाखरूप पापारा की जो अनुभूतियों कलाकार के रागात्मक भन म अकित होती रहती है उन्हें वह सामने रखता है। अतएव कविता प्रबध के रूप म हो अथवा मुक्तक के रूप में हो वह तो स्वानुभूतिनिरूपिणी होगी ही। यह दूसरी बात है कि कवि स्वय प्रथम पुरुष का देकर अदृश्य रहे अथवा उत्सम पुरुष का रूप देकर सामने श्रावे। यह वो केवख लिखने की मौज है। इससे गीत काव्य से कोई प्रयोजन नहीं है। गोस्वामी जी ने विनय पत्रिका भी लिखी। जिसका कवि उत्तम पुरुष में है और