पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/११०

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रहिम रेखा साकी 11 साकी ! मन धन गन घिर आये उमडी उमडी श्याम मेध-माला अब कैसा विलम्ब ? तू भी भर भर ला गहरी गुलाला तन के रोम-रोम पुलकित हों लोचन दोनों अरुण थकित हों नस नस नव झकार कर उठे हृदय विकम्पित हो हुलसित हो कब से ताप रहे हैं—खाली पड़ा हमारा यह प्याला? अब कैसा विलम्ब ? साकी भर भर ला तू अपनी हाला । ७३