पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/११२

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रश्मि रेखा दे मादक परिमल जग में उठे मदिर रस छल छाल अतल वितल चल अचल जगत में- मदिरा झलक उठे झल झव झल कल कल छल छल करती हिय तल से उमडे मदिरा बाला अब कसा विलम्ब ? साकी भर भर ला तू अपनी हाला । (६) कूजे दो कूज में बुझने पाली मेरी प्यास नहीं बार चार ला ! ला। कहने का समय नहीं अभ्यास नहीं । अरे बहा दे अविरल धारा बू द बूद का कौन सहारा भर जाय जिया उत्तराचे डूने जग सारा का सारा ऐसी गहरी ऐसी लहराती डलवा दे गुमला। साकी अब कैसा विलम्ब , डरका तमयताहाला । श्री गणेश कुटोर प्रताप कानपर सन् १३१