पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१४४

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रश्मि रेखा जस्तै सुरति सम्हारी तष ते निरख्यो तिमिर अपार कबहुँ न दामिनि रेख निहारी लख्यो न शशि सुकुमार कब लौ बहन करेंगी हिय था अ धकार को भार ? कब चमकौगे बाल अरुण सम पिय तुम हसत सिहात? पिथा या हिय की बरनि न जात । प्राणधन यह कैसी अस्तित्व रस रास जो तुम बिन हतन युग बीते सहत-सहत उपहास ? का अज हुँ न पूरोंगे अपने जन की हौस हुलास ? पीतेंग जीवन के य छिन का यों ही अकुलात ? बिया था हिय की परनि न जात । (४) त ललकि रौ हिय दरस परस को मन है अस्त व्यस्त अपनेह मैं चिन्तातुर में निज सत्रस्त मैं बिछोह निशि तिमिराष्टत संभ्रम निद्रा प्रस्त तुम सपन्ज में ना आ त कण्हू बिथा या हिय की बरनि न जात । प्रिय रात बिरात १