पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१६१

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रश्मि रेखा तू क्या जान निपट परभता इस जग के जजाल अरी सलि, मैं क्या कहू हुए हैं क्या क्या अब तक मेरे हाल गरी सखि ? तू तो नित उड़-उड़ बैठी है हरित आम की डाल अरी सखि चूने क्या मैंने देखा जग इसको छू के कोयलिया सखि तू मत कूक कोयलिया सरिख । (३) सुन तरे स्वर गात शिथिल मम है उ मन उ मन मा मन सखि विस्मृति यत स्मृतियाँ उमडी है है सालस शोणित कण कण सखि हूँ प्रयाण उमुख सा मैं अब हैं असाथ ये जग-जन गन सखि कूक उठी तू बिना कहे पर तू क्यों चूके कोयलिया सखि ? तू मत कूके कोयलिया सखि ? कुज-कुऊ के बैन सुनाकर क्यों भर रही निदाप हिये सखि ? वैश्वानर पायी में बैठा हू आग पिये सखि हरित कुञ्ज में छुपकर तूने ये अनारे और दिये सखि आग लगा अब बहा रही तू झोंके लू के कोयलिया सखि तू मत्त कूके कोयलिया सखि जिला कारागार उन्नाव दिनाब अप्रल १९४३ } १२४