पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेरे प्रिय मदादरी शीत श्वास-पवन दूत मत भेजो इस दिशि तुम मैं हू अति पराभूत बरसाओ तुम न उपल अनपेक्षा-घन प्रसून थर थर थर काँप रहा रहसि हृदय मम अजान ठिहरे है विकल प्राण । कॉप-काँचढाय-जय बाल रहे काक कीर च चुक घुक करती यह काँपी खग वृन्द मीर शीत घाण बरसाता बहा सनन सन समीर पीर भरे अतर में ठिठुर गये सरस गान सब शरीर कम्प मान । (४) थन गत यह पौष तरणि क्षीण तेज मानों मृत नि प्रम सा फाँप रहा मद मद धूमावृत्त ऋतु काकर सुकृत किरण आज हुई विकृत अमृत ऐसे क्षण विहस रखो दिनकर ठिहरे हैं विकल' प्राण । पलित मान + म दादर = उपेचायुक्त