पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१७२

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रश्मि रेखा सन्ध्या वन्दन सड़े हुए हैं झुक लकुटी पर अमित भ्रमित पग धरते-धरते सहसा क्षितिज निहार रह है हम मन में कुछ डरते-डरते । यही गगन पथ थाम कह गए थे जिससे प्रिय तुम भाने को ? यह भी आशा थी कि निहारे हम दश दिशि तुमको पाने को और कह गये थे हमसे इस क्षण स्वर भर मन गाने को लो हम पथ निहार रहे हैं रोत गाते उमड़ सिहरते सहसा खड हो गये है हम भ्रमित श्रमित पग धरत धरते । १३५