पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रश्मि रेखा अतुल वेदना भरे हृदय सम मौन हुई है सन्ध्या बाला; खग-कलरव थम गया, अॅज गया दिशि-हग में अञ्जन पिका ध्र व मन्थर गति-मती सुर धुनी; लुप्त हो गया नभ-उजियाला; हम कूल-स्थित, व्यथित-मथित-चित, लगन लगाए, हृदय हहरते,- सहसा खड़े हो गए हैं हम अमित-श्रमित पग धरते-धरते । -- ' गोधूली के अन्धकार ने भर-भर प्राणों मे अश्रुत स्वर ऐसी कुछ मुरलिका बजा दी; कम्पित है हृदय-स्तर थर-थर; ज्यों-ज्यों तिमिर बढ़ेगा त्यों-त्यों होगा स्वर-संचार तीन तर; यह झुट-पुटी वेदना होगी और घनी निशि डरते-डरते; क्यों न पधारो स्वर लहरी पर तुम कोमल पग धरते-धरते ? ये दो-तीन, चार-छः तारे तपक रहे है हिय के व्रण-से; सोचो, क्या होगा उस क्षण जब गगन भरेगा हीरक-कण से, अब भी अक्सर है, मत विचलित होना, प्रिय, तुम अपने प्रण से; सींची है. सन्ध्या की गलियाँ हमने लोचन झरते-झरते, हुन तारक किरणों के झूले झूल उत्तर आओ हिय हरते ।