पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/१८

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रश्मि रेखा कर वह भी केवल अमि यजन प्रणाली के रूप में ही रह गया । अतएव अभि यज्य से अभि प्रजन को अधिक महब मिला और काव्य में नई-नई शैलिया का विकास हुधा । पुरानी बकोक्ति समासोक्ति और अन्योक्ति शैलिया का और सूक्ष्म रूप दिया गया और सकेता को अनेकार्थी श्वनिया के महीन से महीन रूप में यवत किया गया । छायावाद के इस छल ने बहुत स्थला में वस्तु को ही घपले में डाल दिया और कवल उक्ति के चमत्कार को हो लोग थाह पाह कह कर अनुमोदन करने लगे । बझे बड़े कथियों में अनावश्यक दुरुपता पैठ गई- प्रसाद जी के एक गीत की एक पंक्ति देखिये उखडी साँसे उलझ रही हो धडकन से कुछ परिमित हो।' यहाँ उसकी साँसों से बियोग का सकेत है और धड़कन से सयोग की भोर यान दिखाया गया है । अर्थात वियोग को सयोग सीमित करे भार सयोग को वियोग सीमित करे यहाँ प्रेम का सादर्य है । और देखिये-- मादकता सौ तरल हसी के प्याले में उठती लहरी मेरे निश्षासों से उठ कर अधर चूमने को ठहरी । मुख को हसी का याला कह कर उठती हुई मस्कराहट को प्याले म उठने वाली तर भाई बतलाना और फिर यह कहना कि हवा के एक और के माके से जैसे लहर दूसरी ओर सीमा को छूती है वैसे ही इनको आहा के माका में उनकी हसी उनके अपरा को स्पर्श करने शगती है जब कि कहना फेवल यह है कि इधर की आहा की अधीरता से उधर मुस्कराहट आ जाती है। मह अर्थ साधना अकष्ट साध्य नहीं कही जा सकती है। छुटपुटिये कवि दा में तो छायावाद अधिकतर पहेली बुझाने वाली उक्ति बन कर रह गई है। उनके तो भावा म भी कनायाषी देखने में आती है- वेदना होती है मनमें तड़क सा उठता है ब्रह्माण्ड ।" ब्रह्माण्ड का या ही तबका देना महान कलाकार का ही काम है। भाव को सीधे सीधे परिस्थितिया के सोपान से बड़ा कर उ कप देना तो सभी लोग जानत हैं। सकेत का बोझ उक्लिया म नादमा पुराने कविया का भी चमकार है। कबीर इसमें बड़े विज्ञ हैं। जायसो भी बड़े चतुर हैं। परंतु वे प्रसिद्ध उपमाना के सहारे ९