पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/२८

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1 रश्मि रेखा तपा वस्तु की प्रयेक पका में एक नयी निषधन विधि न हो तो एक प्रकार का खापन आ जाता। परतु महाकवि सूर की भाँति वा नष्ण की भी यही जीत है। बालकृष्ण मिरतन तश्ण कवि हैं। उनकी तरुणाई की तरक्षाई के कण का में दैत का परिरम्म मुस्कराता । उनका चिरतन भाव रति है पर युवावस्था को अगवाइयों में प्रणय की थकाव का विनम्भया नहीं है परन् अपूण जीवन के अवसान' के निश्वास है । जवानी का रस सब कहा है। प्रिय की स्मृति की मादकता प्रकृति के सुहावने नश से मिलकर मन को नचा देती है और बुध कर देती है पूरदास को भौति बाप-- अब मैं नाचो बहुत गुपाल कह कर उसको शिकायत नहीं करत । उनके दर्शन म यह पार्थिय भाकाक्षा अपवित्रता नहीं है परन् परम व प्राप्ति के लिये भावश्यक सहारा है । यह वर्तमान की बालवती विचार धारा है। यह देखिये- हिय में सदा बौंदनी छाई शीर्षक कविता म बालकृष्णा ने यक्त और अ यस की कैसी निबधना की है । ऊपर और नीचे की कैसी रागपूर्ण योजना है। कुछ धूमिल सी कुछ अल-सी शिल मिल शिशिर चाँदनी छाई मेरे काराक आँगन में उमड पड़ी यह अमित जुहाई। यह आँगन है उस भिक्षुक सा जो पा जाये अति अमाप धन । उस याचक सा जो धन पाकर हो जाए उद्भात शूप मन ॥ उसी तरह सकुचा सकुचा सा आज हो रहा है यह आँगन कहाँ घरे यह विपुल सपदा फैली जिसकी अमित निकाई? उमड पड़ी यह शिशिर-जुहाई। कोठरी में औं चाँदनी खिली है भाहर इधर अँधेरा फैल रहा है फला उधर प्रकाश अमाहर क्यों मानू कि ध्यान्त अविजित है जब है विस्तृत गगन उजागर लो। मेरे खपरैलों से भी एक किरण हसती छन आई । उमड पड़ी यह शिशिर--जुहाई।