पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/३२

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रेशिम रेखा कहता प्रतीत होता है कि प्रिय के साचारकार ने उसके शुष्क बबूल जीवन को भी रसा गवत् मीठा बना दिया। किसी आध्यात्मिक प्रयाजन के लिये कवि को प्राध्याम की एक पृष्ट भूमि बनानी पड़ती है। पृष्ट भूमि कभी भी नेत्रा से ओझल नहीं होती। जगत के रूप यापार उसी में सजत है और उसी के आलोक में चमकते हैं। उसकी ही सजावट में वे सहायता देत हैं। यदि वे पायव वातावरण में सजाये जाते हैं तो किसी एक झटके में वे अपार्थिव नहीं बन सकते । जमुना के किनारे चाँदनी रात में रासलीला म रत गोपिकाओं के वलापहरण करते हुए श्री कृष्ण के मुख से केवश यह कहला देने वे कि- परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् धम सस्थापनाथाय समषामि युगे युगे । वे भगवान न बन सकगे। काय पादप को पृथ्वी से चाहे जितनी खाध खोचना परे पर 1 उसे अपनी रिपो हुई गढ़ी शिरा से खोचेगा। कार तो लहलहाती पत्तियों और फूल आकाश को श्रार जायगे। यह काचित अथिक सत्य न होगा कि बालक पा के सारे पापिय उमेत्र श्राध्यामिक उबान है जिस प्रकार भातिक वाशनिका की यह बात अधिकतर सत्य नहीं है कि विश्व के सारे मा यामिक उड़ान उसकी पार्थिवता की प्रतिकिया है उसके विफल प्रेम की गाथा है। हम तो बास पा का मूल्य उनको अमि यजना की सत्यता से आँकना है। अपार्थिव जामा पहनाने स कलाकार के प्रतिष का मूल्य आज भारतवर्ष का आँकन लगे परतु कला के मूल्याकन म इसपे कोई अतर नहीं आता । विश्व के सभी साहित्य म और विशष कर संस्कृत और हिंदी में ऐसी परिपाटो कभी नहीं रही है कि प्राध्यामिक प्रेरणा के अभाव में काम को कची कला न समझा जाय । अन्यथा काशिदास प्रकृति सस्कृत के कलाकार और बिहारो प्रमृति हिंदी के कलाकारों का काई स्थान ही न रहगा । बूढ़ों और बुड़िया का परितोष हने पर भी युवक और युती में विरोधी सामाजिक बधना को डिन भिन करने की तत्परता उनका गार ।इसी रूप में का य इन्हें अकित करता आया है। साफी | मन धन गन घिर आये उमडी श्याम मेघमाला अप कैसा विलम्ब ? तू भी मर भर ला गहरी गुल्लाला