पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रश्मि रेखा (2) अरे, आज चाँदी परसी है मेरे इस सूने ऑगन में जिसस चमक आगह है इन मेरे भूलुण्ठित कण-कण में उठ आई है एक पुलक मृदु मुझ बदी के भी तन-मन में भावी की स्वमिल फुहियों में मेरी भी कल्पना नहाई। उमड पडी यह अमित जुन्हाई ! मैं हू बद सात तालों में किन्तु मुक्त है चद्र गगन में मुफि बह रही है क्षण क्षण इस मद प्रवाहित शिशिर व्यजन में और कहो मैंने कब मानी बधन-सीमा अपने मन में? का मुक्ति सदेसा ल आई चन्द्रिका लुनाई। उमड पड़ी यह शिशिर-जुहाई। जग-जनलाण (४) मैं निज काल कोठरी में हू औ चाँदनी खिी है बाहर इधर अधेरा फल रहा है फैला उधर प्रकाश अमाहर क्यों मान कि ध्वा त अविजित है जब है विस्तृत गगन उजागर लो। मेरे खपरैलों से भी एक किरण हसती छन आई ।। उमड पड़ी यह शिशिर-जन्हाई । १५