६५ होता, क्योकि इसका लनण उनमे नहीं देखा जाता। प्रातःकाल की विल- क्षणता पक्षियों को चिमुग्ध नहीं करती, बरन उसका सौंदर्य्य । इसी प्रकार मयूर मेघ की छटा और पिक कुसुमाकर का विकाश अवलोकन कर मत्त होता है, उनका वैचित्र्य देखकर नहीं । मल-मूत्र अथवा निंदनीय पदार्थ देखकर घृणा करना मनुष्य की प्रकृति है, अन्य प्राणियों में यह अनुभव शक्ति नहीं होती, इसलिये बीभत्स रस के पात्र भी वे नही होते । पक्षियों में म्बन्ध रहने की प्रकृति देखी जाती है, किसी किसी पशु में भी, कितु इसका हेतु मल से घृणा नहीं, मौंदर्य-प्रियता है. जिसका श्राधार शृगार है। पशु पक्षियो मे, कई एक जलचर जन्तुओं में शांक की मात्रा पाई जाती है, शोक करुण रस का स्थायीभाव है. अतएव इन सबो मे करुण रस का अभाव नहीं माना जा सकता, परतु मनुष्य जाति में यह रस जिस परिष्कृत और व्यापक रूप में है, जैमा आस्वादन इस रस का वह करता है. अन्य नहीं । वीर और रौद्र रस के विपय में भी यही बात कही जा सकती है, जिनके स्थायीभाव उत्साह और क्रोध हैं। चींटी भी दवने पर काटती है, और उत्साह की तो वह मूर्ति होती है, परंतु उनके क्रोध मे क्षमा को स्थान नहीं और न उनके उलेमाद मे परहित-परायणना है. अतएव इन दोनो रमों का आन्वादन भी जितना मनुष्य करता है, अन्य प्राणी नहीः परन्तु प्रश्न यह है कि विशेषता लाभ करने पर भी क्या मानव करण, रौद्र एवं वीर का उतना हो पास्वादन करता है, जितना शृंगार रस का ? यदि नहीं तो अन्य प्राणियों का जीवन शृगार-स-सर्वम्व क्या न होगा। हॉ. भय ही एक ऐसा रम है जिसका श्रास्वादन प्राणिमात्र को समान भाव से होता है। कहा भी है. 'आहारनिद्राभयमयुन च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्' परन्तु जैसा महचर शृंगार रस है, भय नहीं । भय कभी होता है, कभी नहीं । उमका विकराल मुग्य मंडल नदा नहीं डराता रहता. परन्तु शृंगार रस में सौंदर्य का विकास कर नहीं लुभाता । यह बात समस्त प्राणियों के विषय में की जा सकती है।
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