१५० , प्रोजन्विनी भाषाओ में लिखी मिलेंगी। कारण इसका यह है कि इस प्रकार की रचनाओ मे बड़ी हृदयग्राहिता होती है। स्वकीया का मार्ग कटकाकीर्ण नहीं होता, और न उसके मार्ग में आदिम प्रेम के पचड़े होते, इसलिए उसके मानस मे वे भाव नहीं उदित होते जो परकीया के हृदय मे नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओ का सामना करने के कारण उत्पन्न होते हैं। अनेक सकटो मे पड़ने, नाना दुख झेलने और सैकड़ों झझटो से टक्कर लेने पर जो सफलता मिलती है वह बड़ी मुग्धकरी और आनंदमयी होती है। उसका वर्णन बहुत ही चमत्कारक और मनोहर होता है, इसलिए हृदयो को मोह लेने की उसमे अपूर्व सामग्री मिलती है। उस वर्णन मे आपत्तिपतिता, प्रेमोन्मादिता, विह्वला और नितात उत्कठिता का जो द्रावक ऋदन सुना जाता है, जो मर्मवेधी पीड़ा देखी जाती है, जो उद्धात भाव दृग्गोचर होता है, उससे कौन ऐसा सहृदय है जो प्रभावित नहीं होता, और कोन ऐसा हृदय है जो द्रवीभूत नहीं बनता। यही कारण है कि उसकी कथाएँ रोचक होती हैं, चाव से पढ़ी सुनी जाती है और सब उन्हें प्यार करते हैं। यदि परकीया मे वास्तविकता न होती, उसकी बाते सत्य न होकर कल्पित होती, तो उसमे इतनी स्वाभाविकता न मिलती। इसी स्वाभाविकता के कारण ससार के साहित्य मे उसका आदर है, और यह व्यापक आदर ही उसके अस्तित्व के महत्त्व का प्रतिपादक है । साहित्य-दर्पणकार कहते है, परकाया दो प्रकार की होती है, एक वह अविवाहिता कन्या जो माता पिता अथवा किसी दूसरे अभिभावक के अधिकार मे रहते किसी पुरुप से स्वतंत्र प्रम करती है, और दूसरी वह जो पति के आधीन होते पर-पुरुपानुरागिणी बनती है। रसमजरी- कार भी यही लिखते हैं- अप्रकटपरपुरुषानुरागा परकीया । सा द्विविधा वराढा कन्यका च । कन्याया. पित्राद्यपानतया परकीयता।
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