पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६६

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१५१ पहली गुरुजन का बंधन तोड़ती है, और दूसरी पतिदेव का । वर्त्त- मान सभ्य जगत की ललनाएँ आज कल यही तो कर रही हैं । यूरोप और अमेरिका की कन्याएँ माता-पिता की परवा न करके आप स्वयं किसी पुरुष को वरण कर लेती हैं। वहाँ की पतिवती ललनाऍ पति का त्याग कर जव जी में आता है किसी अन्य को प्रियतम वना लेती है । उन सभ्य देशो मे ऐसा करना अनुचित नहीं समझा जाता, वरन् यह स्त्री जाति का स्वत्व समझा जाता है और माना जाता है कि ऐसा करने ही मे स्त्री जाति की मर्यादा और महत्तासुरक्षित रहती है । क्योंकि इस प्रणाली से उनकी पराधीनता की वेड़ी कटती है, और स्वतंत्रता का सच्चा सुख उन्हे प्राप्त होता है । आज कल भारत की सुशिक्षिता ललनाएँ भी इन प्रथाओं की ओर सतृष्ण नेत्रो से देख रही है, और स्वयत्ररा होने की ही इच्छा दिन-दिन प्रबल नही हो रही है, पतियों के परित्याग का अधिकार प्राप्त करने का उद्योग भी चल रहा है । यदि वांछनीय यही है, तो परकीया को नायिकाओ में स्थान देकर प्राचीन साहित्यकारो ने स्त्री-जाति के स्वत्व की ही रक्षा तो की है, उन्होंने प्रकृति की नाड़ो टटोल- कर उस समय उनके इस अधिकार का स्वीकार किया, उनकी वेदनाओ और उत्कंठायो का मार्मिक भापा मे उल्लेख किया, जिस समय समाज उनको जैसी चाहिये वैसी अच्छी दृष्टि से नहीं देखता था। इतना निवेदन करने के बाद क्या यह वतलाने की आवश्यकता रही कि परकीया का वर्णन युक्तिसंगत है या नहीं ! अब रही गणिका । समाज मे गणिका का भी उपयोग है। नाट्य- शास्त्रकार महात्मा भरत ने अपने ग्रंथ मे बड़े विस्तार से यह लिखा है, कि नाटको मे गणिका की उपयोगिता से कहाँ-कहाँ कौन सा लाभ उठाया जा सकता है। एक नीतिशास्त्रकार गणिका के विपय मे यह कहता है- देशाटन पण्डितमित्रता च वारागना राजसभाप्रवेशः । अनेक शास्त्राणि विलोकितानि चातुर्यमूलानि भवन्ति पच ।।