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पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६७

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१५२ "देशाटन, पंडित की मित्रता, वारांगना का सहवास,राजसभा-प्रवेश, अनेक शास्त्रों का अवलोकन, ये पॉचो चातुर्यकला सीखने के मूल हैं।" महाराज भर्तृहरि ने नृप-नीति को वारागना के समान लिखा है, इस पद्य में उन्होंने वारागनाओं के कुछ गुणों का भी उल्लेख किया है । देखिये- सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च । हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरावदान्या । नित्यव्यया प्रचुनित्यधनागमा च । वारागणेव नृपनीति अनेकरूपा ।। “मत्या है, अनृता भी; परुषा है, प्रियवादिनी भी, हिस्रा है, दयावती भी, अनुदारा है, वदान्या भी, नित्यव्यया है,प्रचुर धनागमा भी; वास्तविक वात यह है कि वारागना के समान नृप-नीति अनेक रूपा है।" साहित्यदर्पणकार भी उसको 'क्वापि सत्यानुरागिणी' लिखते हैं, मृच्छ- कटिक की बसन्तसेना इसका प्रमाण है । वे यह भी लिखते हैं- पडका मूर्खाः सुखप्राप्तधनास्तथा । लिगिनश्छन्नकामाद्या आसा प्रायेण वल्लभाः॥ "चोर, नपुसक, मूर्ख, जिनको अनायास धन मिल गया है वे और छद्म वेपधारी, प्रच्छन्न कामुक पुरुष प्राय वेश्याओ के बल्लभ होते हैं।" कम से कम इस पद्य से यह तो ज्ञात होता है, कि दुष्टों के एक बहुत बडे दल से कुलागनाएँ वेश्याओ के कारण सुरक्षित रहती हैं। कभी- कभी दुष्टजनो और वदमाशो का जो आक्रमण कुल ललनाओ पर होता रहता है, वही इसका प्रमाण है। छावनियो के सैनिकों के लिये जिस प्रकार उनका उपयोग होता है, वह भी अविदित नहीं । इन बातों पर विचार करने से यह नहीं कहा जा सकता कि समाज मे गणिकाओं का कुछ उपयोग नहीं । वास्तविक बात यह है कि इन्हीं दृष्टियो से नायिकाओं में उनकी गणना है। शरीर में कुछ ऐसे अंग हैं, तस्करा .